Monday, 4 March 2019

शिकार हो रहा सैनिक


क्या मेरी किमत तभी तक, 

जब हाथ में बंदूक ले दोङा सरहद पर, 

बंदूक मुझसे अधिक मान पा रही, 

क्या मेरी ना रही, 

क्या मेरी किमत इतनी ही|


वो आदेश देते हैं, 
चाय की चुस्की लेते हुए, 
सियासत के खेल में, 

मेरी शान की किमत लगा रहे , 

अब कठपुतली सा हो चला हूँ, 

आज़ादी की आस में, 

गुलामी की राह पर चल पढ़ा हूँ, 

सैनिक से हथियार बन चला हूँ, 

क्या मेरी किमत इतनी ही |



मेरी शहादत का तमाशा बन रहा है, 

मेरे अधिकारों को मसल कर, 

अपनी कुर्सी को चमकाया जा रहा है, 

धरम, जात, बोली के नाम पर, 

मेरे ही घर को निश्तों-नबुज़ कर रहे हैं, 

और फिर भी उनका हथियार

बनता चला जा रहा हूँ 

सैनिक से हथियार बनता चला जा रहा हूँ |


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