क्या मेरी किमत तभी तक,
जब हाथ में बंदूक ले दोङा सरहद पर,
बंदूक मुझसे अधिक मान पा रही,
क्या मेरी ना रही,
क्या मेरी किमत इतनी ही|
वो आदेश देते हैं,
चाय की चुस्की लेते हुए,
सियासत के खेल में,
मेरी शान की किमत लगा रहे ,
अब कठपुतली सा हो चला हूँ,
आज़ादी की आस में,
गुलामी की राह पर चल पढ़ा हूँ,
सैनिक से हथियार बन चला हूँ,
क्या मेरी किमत इतनी ही |
मेरी शहादत का तमाशा बन रहा है,
मेरे अधिकारों को मसल कर,
अपनी कुर्सी को चमकाया जा रहा है,
धरम, जात, बोली के नाम पर,
मेरे ही घर को निश्तों-नबुज़ कर रहे हैं,
और फिर भी उनका हथियार
बनता चला जा रहा हूँ
सैनिक से हथियार बनता चला जा रहा हूँ |
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